मृणाल सेनः बम्बइया सिनेमा को चुनौती देने वाला फ़िल्मकार

एक सख़्त दिल और रूखे व्यक्तित्व का बड़ा रेलवे अफ़सर भुवन शोम बत्तखों का शिकार करने के मक़सद से गुजरात के देहाती-रेगिस्तानी इलाक़े में जाता है जहां एक निश्छल, कोमल, प्रकृति के बीच रहने वाली युवती का व्यवहार और उसकी संवेदना उसे फिर से संवेदनशील मनुष्य बना देती है.

आदिवासी युवती गौरी के भीतर शोम साहब एक 'मरती हुई दुनिया में धड़कती हुई नस को महसूस करते हैं और अचानक हर चीज़ आलोकित हो उठती है, और वे एक नयी प्रसन्नता को पा जाते हैं.'

मनुष्य के रूपान्तरण की यह फ़िल्म थी 'भुवन शोम' और फ़िल्मकार थे मृणाल सेन, जो तब तक बांग्ला में 'नील आकाशेर नीचे' और 'बाइशे श्रावण' जैसी फ़िल्में बना चुके थे.

'भुवन शोम' उनकी पहली हिंदी फ़िल्म थी और उसे वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशन और सवश्रेष्ठ अभिनय (उत्पल दत्त) का पुरस्कार प्राप्त हुआ.

समानांतर सिनेमा का आगाज़

1970 के दशक में हिंदी में एक ऐसे कलात्मक सिनेमा का आगाज़ हुआ था, जिसे बम्बइया व्यावसायिक सिनेमा के बरक्स 'समानांतर सिनेमा' कहा गया और जिसने अगले करीब डेढ़ दशक तक मुख्यधारा की फूहड़ फ़िल्मों को सार्थक चुनौती दी.

इस नए सिनेमा की आरंभिक फ़िल्में थीं: 'भुवन शोम' और उसी के आसपास निर्मित मणि कौल की 'उसकी रोटी', जो एक ट्रक ड्राईवर और उसके लिए रोज़ खाना लेकर सड़क के किनारे इंतज़ार करती पत्नी के मार्फ़त स्त्री जीवन की विडम्बना को अनोखी शैली में चित्रित करती थी.

यह एक ऐतिहासिक शुरुआत थी जिसने हिंदी ही नहीं, कन्नड़, उड़िया, मलयालम, गुजराती आदि में भी सिनेमा के नए शिल्पों को जन्म दिया.

हिंदी में 'आषाढ़ का एक दिन' (मणि कौल) 'सारा आकाश' (बासु चटर्जी), 'गरम हवा' (एम एस सत्यू), '27 डाउन' (अवतार कॉल), 'अंकुर', 'मंथन', भूमिका' (श्याम बेनेगल),' स्पर्श'(सई परांजपे), 'अरविन्द देसाई की अजीब दास्तान ', 'अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' (सईद मिर्ज़ा), 'आक्रोश','पार्टी' ( गोविन्द निहालानी) आदि इस मुहावरे की उल्लेखनीय कृतियां हैं.

बांग्ला सिनेमा और मृणाल सेन
बांग्ला के नए सिनेमा की तीन धाराएं सत्यजित रॉय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन से निर्मित हुईं जिसने उसे अंतरराष्ट्रीय पहचान देने का काम किया.

रॉय की 'पाथेर पांचाली' (1955) के बाद ऋत्विक घटक की 'अजांत्रिक' और मृणाल सेन की 'नील आकाशेर नीचे' उसकी आरंभिक कृतियाँ है.

ख़ास बात यह है कि तीनों फ़िल्मकार अपने समय, यथार्थ और मानव नियति से जुड़े होने के बावजूद अपनी सिनेमाई भाषा में एक-दूसरे से काफ़ी अलग थे.

रॉय की शैली नपी-तुली, संयत और नियंत्रित थी लेकिन घटक आवेग, उदात्तता और नाटकीय शिल्प के फ़िल्मकार थे. इनमें मृणाल सेन सबसे अधिक प्रयोगशील थे और हर फ़िल्म के कथ्य के साथ उनकी फ़िल्म-भाषा बदलती थी.

'भुवन शोम' अगर बेहद शांत, लोक-कथा जैसा मासूम वृत्तान्त है तो 'कलकत्ता-71' एक तरफ़ ग़रीबी और भूख से पीड़ित लोगों और अस्तित्व बचाने के लिए तस्करी, वेश्यावृत्ति आदि की शरण में जाने और दूसरी तरफ़ खाए-पिए-अघाए तबके के पाखण्ड की कहानी है जिसे तीखे विरोधाभासों के साथ अराजक ढंग से कहा गया है.

मृणाल सेन की दो और फ़िल्में उनकी कलकत्ता-त्रयी को पूरा करती हैं: 'इंटरव्यू' और 'पदातिक'. दोनों फ़िल्में उस दौर में छात्रों की भीतरी बेचैनी-विवशता और फिर नक्सलबाड़ी विद्रोह और भूमिगत कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीति और नेतृत्व के जलते हुए सवालों से दो चार होती हैं.

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