मध्य पूर्व के अखाड़े में ईरान बनाम सऊदी अरब
ईरान और सऊदी अरब, मध्य-पूर्व की इन दो ताक़तों ने अपने आपसी होड़ को दुश्मनी की हद तक पहुंचा दिया है.
इस दुश्मनी की वजह कुछ तो ऐतिहासिक है और कुछ इस क्षेत्र की घटनाएं, जिन पर दोनों पक्षों की सीधी प्रतिक्रियाओं ने इस आग को हवा देने का काम ही किया है.
तेहरान और रियाद एक बार फिर एक नए विवाद की वजह से एक-दूसरे के सामने आ गए हैं.
दोनों ही देश खुद को मध्य-पूर्व के इस इलाके की सबसे बड़ी भूराजनीतिक ताक़त (जियोपॉलिटिकल पावर) साबित करने की फ़िराक़ में हैं.
हालांकि ईरान और सऊदी अरब पिछले कई दशकों से मध्य पूर्व की क्षेत्रीय राजनीति में एक-दूसरे के साथ लगातार स्पर्धा में उलझे हैं.
पेरिस समझौते के बाद
शायद यमन के मोर्चे पर तेहरान और रियाद एक दूसरे के इतने नजदीक खड़े हैं कि उनकी दुश्मनी कभी भी धमाके की शक्ल अख्तियार कर सकती है.
अब तक ये दोनों देश अपने प्रतिद्वंद्वी को कमज़ोर करने और अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए रणनीति के तौर पर पैसा खर्च करते थे ताकि अपने विरोधी पर बाहरी और अंदरूनी दबाव बनाए रख सकें.
लेकिन मध्य-पूर्व में बिछी शतरंज की इस बिसात पर ईरान के हाथ में ऐसा मोहरा है जो शह और मात के इस खेल में बाज़ी कभी भी तेहरान के पक्ष में पलट सकता है और वो है प्राकृतिक गैस.
ग्रीनहाउस गैस कम करने के मुद्दे पर अमरीका को छोड़कर विश्व के बाक़ी देशों ने जब पेरिस समझौते पर दस्तखत किए थे तो ऐसा लगने लगा था कि रजामंद देश इसे लागू करने और उस पर अमल करने के लिए ज़रूरी रास्तों की तलाश में लग गए हैं.
ज़्यादातर देश इस नतीजे पर पहुंचे कि जीवाश्म ईंधन (फ़ॉसिल फ़्यूल्स) के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम किया जाए क्योंकि इसमें प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले पदार्थ मात्रा में पाए जाते हैं जो ग्रीनहाउस गैस पैदा करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं.
प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा भंडार
लेकिन इस बीच जब तक फ़ॉसिल फ़्यूल्स छोड़ कर ऊर्जा के स्वच्छ और नवीकरणीय स्रोतों तक नहीं पहुंच पाते हैं तब तक प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल एक पुल के रूप में हो सकता है क्योंकि प्राकृतिक गैस में प्रदूषण फैलाने वाले पदार्थ बहुत कम मात्रा में पाए जाते हैं.
और हाल के दिनों में टेक्नोलॉजी के फ़ील्ड में आई तरक़्क़ी, इसकी क़ीमत और इसकी उपलब्धता को देखते हुए तेल का एक वास्तविक और मुनासिब पर्याय प्राकृतिक गैस बन सकता है.
मध्य-पूर्व में अब तक जियोपॉलिटिक्स और तेल ही अरब देशों के आपसी संबंधों का निर्णायक फ़ैक्टर रहा है.
लेकिन ये मुमकिन है कि दुनिया की खुशकिस्मती से प्राकृतिक गैस एक बड़े फ़ैक्टर के तौर पर या दूसरे शब्दों में कहें तो विश्व की 'ऊर्जा राजनीति' इस क्षेत्र के राजनीतिक संबंधों में तब्दीली ला सके.
ईरान विश्व का दूसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस भंडार वाला देश है.
इस दुश्मनी की वजह कुछ तो ऐतिहासिक है और कुछ इस क्षेत्र की घटनाएं, जिन पर दोनों पक्षों की सीधी प्रतिक्रियाओं ने इस आग को हवा देने का काम ही किया है.
तेहरान और रियाद एक बार फिर एक नए विवाद की वजह से एक-दूसरे के सामने आ गए हैं.
दोनों ही देश खुद को मध्य-पूर्व के इस इलाके की सबसे बड़ी भूराजनीतिक ताक़त (जियोपॉलिटिकल पावर) साबित करने की फ़िराक़ में हैं.
हालांकि ईरान और सऊदी अरब पिछले कई दशकों से मध्य पूर्व की क्षेत्रीय राजनीति में एक-दूसरे के साथ लगातार स्पर्धा में उलझे हैं.
पेरिस समझौते के बाद
शायद यमन के मोर्चे पर तेहरान और रियाद एक दूसरे के इतने नजदीक खड़े हैं कि उनकी दुश्मनी कभी भी धमाके की शक्ल अख्तियार कर सकती है.
अब तक ये दोनों देश अपने प्रतिद्वंद्वी को कमज़ोर करने और अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए रणनीति के तौर पर पैसा खर्च करते थे ताकि अपने विरोधी पर बाहरी और अंदरूनी दबाव बनाए रख सकें.
लेकिन मध्य-पूर्व में बिछी शतरंज की इस बिसात पर ईरान के हाथ में ऐसा मोहरा है जो शह और मात के इस खेल में बाज़ी कभी भी तेहरान के पक्ष में पलट सकता है और वो है प्राकृतिक गैस.
ग्रीनहाउस गैस कम करने के मुद्दे पर अमरीका को छोड़कर विश्व के बाक़ी देशों ने जब पेरिस समझौते पर दस्तखत किए थे तो ऐसा लगने लगा था कि रजामंद देश इसे लागू करने और उस पर अमल करने के लिए ज़रूरी रास्तों की तलाश में लग गए हैं.
ज़्यादातर देश इस नतीजे पर पहुंचे कि जीवाश्म ईंधन (फ़ॉसिल फ़्यूल्स) के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम किया जाए क्योंकि इसमें प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले पदार्थ मात्रा में पाए जाते हैं जो ग्रीनहाउस गैस पैदा करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं.
प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा भंडार
लेकिन इस बीच जब तक फ़ॉसिल फ़्यूल्स छोड़ कर ऊर्जा के स्वच्छ और नवीकरणीय स्रोतों तक नहीं पहुंच पाते हैं तब तक प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल एक पुल के रूप में हो सकता है क्योंकि प्राकृतिक गैस में प्रदूषण फैलाने वाले पदार्थ बहुत कम मात्रा में पाए जाते हैं.
और हाल के दिनों में टेक्नोलॉजी के फ़ील्ड में आई तरक़्क़ी, इसकी क़ीमत और इसकी उपलब्धता को देखते हुए तेल का एक वास्तविक और मुनासिब पर्याय प्राकृतिक गैस बन सकता है.
मध्य-पूर्व में अब तक जियोपॉलिटिक्स और तेल ही अरब देशों के आपसी संबंधों का निर्णायक फ़ैक्टर रहा है.
लेकिन ये मुमकिन है कि दुनिया की खुशकिस्मती से प्राकृतिक गैस एक बड़े फ़ैक्टर के तौर पर या दूसरे शब्दों में कहें तो विश्व की 'ऊर्जा राजनीति' इस क्षेत्र के राजनीतिक संबंधों में तब्दीली ला सके.
ईरान विश्व का दूसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस भंडार वाला देश है.
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